विश्लेषण : लोकसभा चुनाव के बाद एनडीए के सभी घटक दलों को मंत्रिपरिषद में शामिल किया गया. यहाँ भी पार्टी विफल रही.

हिमांशु शेखर .

विगत विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनावी घोषणा पत्र तक, हर महत्वपूर्ण निर्णय एक सीमित दायरे में हुआ। डुमरी, लोहरदगा जैसे क्षेत्रों में अंतिम समय तक उम्मीदवारों को लेकर असमंजस बना रहा, जिससे कैडर और स्थानीय नेतृत्व भ्रमित रहा। पाकुड़ और मनोहरपुर में उम्मीदवार चयन का पैमाने क्या था? ये सारे उदाहरण एक बात साफ करते हैं—नेतृत्व जमीनी सच्चाई से पूरी तरह कट चुका है। नेतृत्व के सभी निर्णयों ने ज़मीन पर भ्रम की स्थिति बना कर रखी, इसका नुकसान भारी पैमाने पर हुआ। जहाज़ की उड़ान से जमीन की लंबाई नहीं मापी जाती. सबसे हास्यास्पद की हार का ठीकरा बीजेपी पर और अन्य पर मढ़ा जा रहा है. 

पार्टी नेतृत्व ने न तो हार की जिम्मेदारी ली, न ही कार्यकर्ताओं को यह बताया कि अब आगे क्या होगा? क्या पार्टी के पास कोई ब्लू प्रिंट है कि कैसे वह इन परिणामों से उबरकर भविष्य में कार्यकर्ताओं की भूमिका सुनिश्चित करेगी? क्या समर्पित कार्यकर्ताओं को सिर्फ चुनाव के समय मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाएगा? कार्यकर्ताओं के लिए कोई भविष्य दृष्टि नहीं दिखाई पड़ी एक दशक या उससे भी लंबे समय में। बस वर्षों से एक लाइन जीरो से शुरू करेंगे. 32600 गांवो तक जाएँगे. वर्षों से संघर्ष कर रहे लोग जिन्हें दवा, फ़ीस, भोजन, शादी ब्याह की भी ज़िम्मेदारी वो कहाँ से शुरू करेंगे. वो तो नया साल और गर्मी विदेशों में नहीं बीता सकते है. 

चुनाव के पूरे प्रक्रिया में ग़ैर राजनीतिक लोग रणनीति बनाते दिखे. लगातार आयातित लोगो पर ज़्यादा भरोसा किया जाता रहा. 2014 का लोकसभा चुनाव हो या 2019 का विधानसभा चुनाव. आधे से अधिक प्रत्यासी अन्य दलों से आकर चुनाव लड़े और चले गए. पार्टी के नेताओं का मौका दिया जाना चाहिए था.   यहाँ तक की सिल्ली जैसे महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठा की विधानसभा में भी पार्टी के विरोधी रहे आयातित लोगो पर ज़्यादा विश्वास और भरोसा किया गया। 

सबसे बड़ी बात पार्टी अनुशासन और संस्कार से दूर होती चली गई. अंधभक्ति में लीन कार्यकर्ता सोशल मीडिया में गाली गलौज तक करने का दुस्साहस करने लगे. गाली गलौज तो एक शिष्टाचार बन गया. प्रतिष्ठा हनन तो एक परिपाटी बन चुकी है.  सभा में वरीय लोगों को कुर्सी छोड़वाना. वो भी उनके लिए जिनका ना कोई योगदान, ना संघर्ष और ना ही राजनीतिक वजूद ना क़द. हाँ वैसे लोग धनवान जरूर होते हैं. परिवर्तन और सुधार की माँग सिर्फ सत्ता की नहीं, संगठन की भी होती है। संगठन कभी मरता नहीं है, न ही रुकता है। बस समय-समय पर मूल्यांकन ज़रूरी होता है। पहल कीजिए, करोड़ों उम्मीदें आज आपसे जुड़ी हैं।

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